दिल्ली कि
इस आबो हवा में
ग़ालिब कि
फ़िराक़े ख्याली
रचती है बसती है
ये कवितायेँ ही तो है
जो इंसान और मशीनो
के इस जंग में
मशीनो को इंसान बनाती है
सलीके से जीना
और शान से मरना
सिखलाती हैं
कभी फुरसत हो तो
सुनना दिल्ली कि
इन हवाओं को
ये आज भी
ग़ालिब के शेऱ
गुनगुनाती हैं |